प्रदीप सहाय के लिए राजनीति कोई करियर ऑप्शन नहीं, बल्कि समाज सेवा का विस्तारित रूप है।
गाँव के सामाजिक माहौल ने उन्हें सिखा दिया था कि “बड़ा बनने के लिए बड़ा दिल चाहिए, बड़ा पद नहीं।”
------रिपोर्ट(लेख): मनीष कुमार
जब देश की राजनीति अक्सर सत्ता के समीकरणों, हाई-फाई मंचों और दिखावे की नारों में उलझी दिखाई देती है, तब कुछ चेहरे ऐसे भी होते हैं जो जनता के ज़ख़्मों पर मरहम बनकर उभरते हैं। ऐसा ही एक चेहरा है प्रदीप सहाय—समाजवादी पार्टी मजदूर सभा के राष्ट्रीय सचिव, जो महज दो वर्षों में ज़मीनी राजनीति की परिभाषा को नए मायने दे चुके हैं।
> जहाँ जड़ें हैं, वहीं आत्मा भी है
आजमगढ़ के सगड़ी तहसील अंतर्गत अराजी देवारा करखिया सिंघीगढ़ गांव में जन्मे प्रदीप सहाय की यात्रा किसी राजनैतिक परिवार की विरासत से नहीं, बल्कि अपने बूढ़े पिता की झुर्रियों में छिपी मेहनत और माँ के आँचल में पाले संस्कारों से शुरू हुई। बचपन से ही गाँव के सामाजिक माहौल ने उन्हें सिखा दिया था कि “बड़ा बनने के लिए बड़ा दिल चाहिए, बड़ा पद नहीं।” उनके लिए राजनीति कोई करियर ऑप्शन नहीं, बल्कि समाज सेवा का विस्तारित रूप है। स्कूल के दिनों में स्थानीय कार्यक्रमों में हिस्सा लेना, ग्रामीण समस्याओं को उठाना और लोगों की मदद करना—यह सब उस नेतृत्व के बीज थे जो आज विशाल वटवृक्ष बन चुका है।
>सिर्फ़ पद नहीं, ज़िम्मेदारी का अहसास है 'राष्ट्रीय सचिव' होना
2023 में समाजवादी पार्टी मजदूर सभा ने जब उन्हें राष्ट्रीय सचिव के तौर पर ज़िम्मेदारी सौंपी, तब उन्होंने न इसे मंचों की शोभा बनाया और न ही सोशल मीडिया का तमगा। इसके उलट, उन्होंने इस पद को ऐसा हथियार बनाया जो मजलूमों की आवाज़ को विधानसभा की सीढ़ियों तक पहुँचा सके।
चाहे बाढ़ प्रभावित क्षेत्र हो, अग्निकांड हो, किसी दलित परिवार पर ज़ुल्म हुआ हो या मज़दूरों का पलायन—हर आपदा में सबसे पहले पहुँचना, राहत सामग्री से लेकर न्याय की माँग तक में आगे रहना अब प्रदीप सहाय की पहचान बन चुका है।
जनता का नेता या नेता का जनता से रिश्ता—भ्रम टूट चुका है
नेताओं को लेकर अक्सर आम जनता की एक सोच होती है—"वोट के बाद वे दिखते नहीं।" लेकिन प्रदीप सहाय इस धारणा के अपवाद हैं। जब किसी गाँव में बिजली गिरती है, किसी किसान की फसल बरबाद होती है या किसी विधवा माँ को राशन नहीं मिलता, वहां सबसे पहले जिस चेहरे की जनता को आस होती है, वह होता है प्रदीप सहाय का।
उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे कभी किसी मुद्दे को राजनीतिक रंग नहीं देते। उनका मानना है कि “दर्द का कोई दल नहीं होता।” यही कारण है कि उनकी मौजूदगी भाजपा, कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी सहयोगी लगती है, विरोधी नहीं।
>युवाओं के लिए प्रेरणा: राजनीति में नैतिकता संभव है
आज की युवा पीढ़ी के लिए राजनीति एक भ्रामक शब्द बन चुकी है। लेकिन प्रदीप सहाय जैसे नेता यह दिखाते हैं कि यदि नीयत साफ़ हो और सेवा ही उद्देश्य हो, तो राजनीति भी पवित्र हो सकती है। नेता बनना आसान है, लेकिन लोगों के दिलों में जगह बनाना दुर्लभ। प्रदीप सहाय ने यह सिद्ध कर दिया है कि राजनीति केवल पद, प्रचार और प्रभाव की दौड़ नहीं, बल्कि सेवा, संवाद और संघर्ष का रास्ता है।
वे लगातार वृद्धाश्रमों, स्कूलों, ग्रामीण चिकित्सालयों और पंचायती संस्थानों से जुड़े रहते हैं और उनसे जो सीखते हैं, उसे नीति में बदलने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। उनके भाषणों में वादों से ज़्यादा अनुभव बोलता है।
>निष्कर्ष: ऐसे चेहरे चाहिए लोकतंत्र को
भारत जैसे लोकतंत्र की असली ताक़त न केवल संसद के गलियारों में है, बल्कि उन गलियों में भी है जहाँ से प्रदीप सहाय जैसे लोग निकलते हैं। उन्हें देखकर यह विश्वास होता है कि राजनीति, अगर सही हाथों में जाए, तो बदलाव सिर्फ़ नारा नहीं, हकीकत बन सकता है।
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