दलित युवाओं की राजनीतिक दिशा—आंबेडकरवादी विचारधारा या अवसरवादी गठबंधन?
क्या दलित युवाओं को भड़काऊ भाषा और राजनीतिक अवसरवाद ही क्रांति लगने लगा है?
(रिपोर्ट/लेख--मनीष कुमार)
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित युवाओं की भूमिका पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। 2022 और 2024 के चुनावों में एक बड़ा वर्ग अखिलेश यादव को बाबा साहेब और मान्यवर कांशीराम के मिशन का वाहक मान बैठा। लेकिन क्या यह सच में सामाजिक न्याय की दिशा में बढ़ता कदम था, या फिर एक राजनीतिक भ्रम? समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में स्थापित अम्बेडकर पार्क का नाम बदलकर जनेश्वर मिश्रा पार्क किया था। इसके अलावा, मान्यवर कांशीराम उर्दू-फारसी विश्वविद्यालय का नाम बदलकर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती विश्वविद्यालय कर दिया। इन फैसलों के बावजूद, दलित युवाओं का एक बड़ा वर्ग उन्हें सामाजिक न्याय का प्रतिनिधि मानता रहा।
दलित नेताओं की एक नई पीढ़ी, जो खुद को बहुजन हितैषी बताती है, सत्ता समीकरणों में अपनी जगह बनाने के लिए समाजवादी पार्टी के प्रचार में जुटी रही। इन नेताओं ने अपनी एक-दो सीटों के जुगाड़ के लिए अखिलेश यादव का समर्थन किया, जिससे दलित समाज में भ्रम की स्थिति बनी रही। जिसका परिणाम हुआ कि दलित समाज की एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी बहुजन समाज पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा और लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी क़ो एक भी सीट पर जीत नहीं मिल सकी, परंतु लोकसभा चुनाव के बाद जब दलित समाज पर अत्याचार बड़ा तो जिन पर दलित युवाओं में भरोसा किया उन्होंने किसी भी प्रकार से दलित समाज का साथ नहीं दिया और दलित समाज की लड़ाई लड़ने के लिए फ्रंट पर बहुजन समाज पार्टी को आना पड़ा।
दलित युवा बाबा साहेब और मान्यवर कांशीराम के विचारों को समझने के बजाय उन दलों के पिछलग्गु बन रहे हैं, जिन्होंने अतीत में बहुजन आंदोलन को कमजोर किया? दलित समाज की मानसिकता में बदलाव जरूरी है। बाहरी गुलामी से मुक्त होने के बावजूद, आंतरिक गुलामी अब भी नसों में बह रही है। अगर दलित युवा सच में सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं, तो उन्हें राजनीतिक अवसरवाद से हटकर विचारधारा पर ध्यान देना होगा और युवाओं क़ो अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करनी होगी। अगर युवाओं ने ऐसा नहीं किया तो आने वाले समय में दलित समाज क़ो इसका और भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।
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