419 सवाल, 55 जवाब—जनता पूछ रही है: क्या संसद अब सिर्फ विधेयक पारित करने की मशीन है?
जब बहस स्थगित हो जाए और जवाब गायब हों, तब भीम की चेतना ही लोकतंत्र की आखिरी उम्मीद बनती है।
नई दिल्ली: संसद का हालिया सत्र लोकतंत्र की आत्मा पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह बनकर उभरा, जहाँ जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही और संवाद की संस्कृति दोनों ही कमजोर पड़ती दिखीं। कुल 419 सवाल पूछे गए, लेकिन केवल 55 के जवाब मिले—यह आंकड़ा न सिर्फ संसदीय कार्यप्रणाली की सुस्ती को उजागर करता है, बल्कि जनता के ज्वलंत मुद्दों की उपेक्षा का भी प्रतीक बनता है। निर्धारित 120 घंटे की चर्चा में मात्र 37 घंटे ही संवाद हो सका, और इसी बीच लोकसभा ने 12 तथा राज्यसभा ने 14 विधेयक पारित कर दिए—बिना पर्याप्त बहस, बिना जनमत की गहराई को समझे। बार-बार के स्थगन, शोरगुल और विपक्षी बायकॉट ने संसद को ठहराव की ओर धकेल दिया, जहाँ न तो जनहित की आवाज गूंजी, न ही सत्ता पक्ष की पारदर्शिता सामने आई। यह सत्र लोकतंत्र के उस आदर्श से दूर होता दिखा, जहाँ जनता के सवालों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए था, लेकिन अब वे सवाल आंदोलन की शक्ल ले रहे हैं—भीम की चेतना के साथ, जो हर चुप्पी को चुनौती देने को तैयार है।
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