उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र तक परिवारवादी दलों की सत्ता पर कभी सवाल नहीं, पर बहुजन उत्तराधिकार पर बौखलाहट क्यों?
जब सवर्ण नेतृत्व को विरासत कहा गया, तो दलित नेतृत्व को 'परिवारवाद' क्यों कहा जा रहा है?
आजमगढ़/उत्तर प्रदेश। बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की घोषणा के बाद जिस तीव्रता से मुख्यधारा मीडिया ने प्रतिक्रिया दी, वह बहुजन नेतृत्व के प्रति गहरे जातिगत पूर्वग्रह और दोहरे मापदंड को उजागर करती है; आज़ादी के बाद से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (मुलायम सिंह यादव से अखिलेश यादव), कांग्रेस (गांधी-नेहरू परिवार), महाराष्ट्र में शिवसेना (बाल ठाकरे से उद्धव ठाकरे, फिर आदित्य ठाकरे), एनसीपी (शरद पवार से अजित पवार), बिहार में राजद (लालू प्रसाद यादव से तेजस्वी यादव), पंजाब में अकाली दल (प्रकाश सिंह बादल से सुखबीर बादल), तमिलनाडु में डीएमके (करुणानिधि से एम.के. स्टालिन) जैसे तमाम दलों में सत्ता का हस्तांतरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहा, जिसे मीडिया ने कभी गंभीरता से नहीं उठाया, बल्कि उसे अनुभव, विरासत और नेतृत्व की निरंतरता का नाम देकर वैधता दी गई; लेकिन जैसे ही मायावती ने संगठनात्मक मजबूती के तहत आकाश आनंद को उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत किया, तो इसे "परिवारवाद" कहकर निशाना बनाया गया, मानो दलित नेतृत्व को उत्तराधिकार का नैतिक अधिकार ही नहीं हैयह दोहरा मापदंड सिर्फ बहुजन राजनीति को कमजोर करने की कोशिश नहीं, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सत्ता के गलियारों में आज भी जाति आधारित असमानता गहराई से मौजूद है, जहां सवर्ण नेतृत्व को लोकतांत्रिक मान्यता और बहुजन नेतृत्व को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है; मायावती ने स्पष्ट किया कि वे राजनीति से संन्यास नहीं ले रही हैं और BSP को अपनी अंतिम सांस तक समर्पित रखेंगी, ऐसे में आकाश आनंद की भूमिका कोई पारिवारिक सौदा नहीं बल्कि संगठनात्मक रणनीति का हिस्सा है, जिसे मीडिया द्वारा जिस तरह से भटकाने की कोशिश की गई वह न सिर्फ विचारधारा पर हमला है बल्कि सामाजिक न्याय की राजनीति को हाशिए पर धकेलने की एक सोची-समझी कवायद भी।
– संपादक: मनीष कुमार
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