मुलायम-मोदी से लेकर प्रतीक-अर्पणा तक: रिश्तों की परतें!
रणनीति: हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और विपक्ष को कमजोर करना!
लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐसा अदृश्य गठजोड़ आकार ले चुका है, जिसे सार्वजनिक मंचों पर भले ही न स्वीकारा गया हो, लेकिन राजनीतिक गलियारों में इसकी गूंज साफ सुनाई देती है। यह गठबंधन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच का है, जिसकी नींव कभी मुलायम सिंह यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पारस्परिक सम्मान वाली मुलाकातों से पड़ी थी। आज जब देश विपक्षी एकता की बात कर रहा है, तब यूपी में सपा की भूमिका पर सवाल उठना लाजमी है।
मुलायम-मोदी से लेकर प्रतीक-अर्पणा तक: रिश्तों की परतें
राजनीतिक इतिहास में कई ऐसे क्षण दर्ज हैं जो इस ‘‘सॉफ्ट अंडरस्टैंडिंग’ यानी नरम समझौते को उजागर करते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने संसद में नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने की शुभकामनाएं दीं, जिसे भाजपा ने बड़े सम्मान के साथ प्रचारित किया। इसके बाद रामगोपाल यादव ने संसद में एक गुप्त पर्ची गृह मंत्री अमित शाह को दी, जिसे लेकर मीडिया और विपक्ष में कई सवाल उठे और अखिलेश यादव के भाई प्रतीक यादव और उनकी पत्नी अर्पणा यादव भाजपा में सक्रिय हैं और पार्टी के कार्यक्रमों में खुलकर भाग लेते हैं। धर्मेंद्र यादव की बहन और उनके बहनोई भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं, जो सपा के पारिवारिक संबंधों में भाजपा की गहरी पैठ को दर्शाता है। ये घटनाएं संकेत देती हैं कि सपा का शीर्ष नेतृत्व कहीं न कहीं भाजपा से जुड़ा हुआ है—चाहे वह पारिवारिक स्तर पर हो या रणनीतिक।
रणनीति: हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और विपक्ष को कमजोर करना
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सपा ने एक अघोषित समझौता कर लिया है—अपनी पार्टी को हिंदू-मुस्लिम बहसों में उलझाकर भाजपा को लाभ पहुंचाना और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करना ताकि कोई अन्य विपक्षी दल मजबूत न हो सके। यह रणनीति भाजपा को लगातार चुनावी जीत दिलाने में मदद करती है, जबकि सपा विपक्ष की भूमिका निभाने के बजाय एक ‘बी-टीम’ की तरह व्यवहार करती है। सपा के नेताओं के बयान अक्सर ऐसे मुद्दों को हवा देते हैं जो भाजपा के ध्रुवीकरण एजेंडे को मजबूती देते हैं, और विपक्षी एकता को कमजोर करते हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह ‘अदृश्य गठजोड़’ विपक्षी एकता की राह में सबसे बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। अगर सपा वाकई जनता की आवाज बनना चाहती है, तो उसे अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी—वरना जनता खुद तय करेगी कि कौन विपक्ष है और कौन सत्ता का सहयोगी। लोकतंत्र में पारदर्शिता और जनविश्वास सबसे बड़ी पूंजी होती है, और अगर कोई दल उसे खो देता है, तो उसकी सियासी जमीन भी खिसक सकती है।
(संपादक -मनीष कुमार)
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