जब मंच से मिली धमकी, तो बहनजी ने दिया जवाब!
“खेतों से रास्ते निकाल दूँगी” —ज़ब मायावती ने की थी सत्ता से न्याय की घोषणा!
लेखक: मनीष कुमार
जब कोई कहता है — “बिना दिमाग की खोपड़ी जो आज बोलने के लिए मुँह में जुबान है, मूंछों पर ताव देकर बुलेट पर चल पा रहे हो” — तो उसमें सिर्फ व्यंग्य नहीं, बल्कि वह गहरी राजनीतिक और सामाजिक विडंबना छिपी होती है जिसे समझे बिना वर्तमान राजनीति का नक्शा अधूरा रह जाता है। इस लेख में मैं एक छोटी सी घटना से आगे बढ़कर उस व्यापक परिप्रेक्ष्य का विवेचन कर रहा हूँ जिसमें दलित समुदाय की दशा, उसकी राजनीतिक आशाएँ और समाज के भीतर अधिकारों की तलाशी शामिल है। मैंने इसे लंबा इसलिए लिखा है ताकि हर उस तत्त्व पर रोशनी पड़ सके जिसे अक्सर भाषणों और मीडिया कवरेज में अनदेखा कर दिया जाता है।
इतिहास की चोटें और आज की चुनौतियाँ-
हमारे गाँव-शहर की सड़कों पर आज भी वही पुरानी धुंधली परतें हैं जो समय के साथ उठनी चाहिए थीं — पर नहीं उठीं। 1990 से पहले सहारनपुर जैसे क्षेत्रों में दलितों की सामाजिक और आर्थिक दशा बेहद दयनीय थी; सीमित भूमि, असमान अवसर और रोज़मर्रा की जिंदगी में अपमान के किस्से परदे के पीछे नहीं, सामने होते थे। यह कोई दूर की बात नहीं — दादाजी की कहानियाँ, पड़ोस के अनुभव और बयान हमें आज भी यह याद दिलाते हैं कि बराबरी की लड़ाई कितनी लंबी और कठिन रही है।
राजनीति में बदलाव आए — पर सामाजिक मनोविज्ञान तेजी से नहीं बदला। सत्ता में आने वाले दलों और नेताओं ने कई बार वादे किए, कुछ अधिकार मिले, पर असमानता की बुनियाद ज्यों की त्यों रही। इसलिए जब कोई मंच से खुलेआम कह देता है कि “दलित औकात में रहे” — तब यह सिर्फ एक बयान नहीं, वह पुरानी सामाजिक व्यवस्था की झलक है जो अभी भी जिंदा है।
मंच पर बेबाकी और बहनजी की प्रतिक्रिया-
मैं जो घटना बताना चाहता हूँ, वह एक राजनीतिक मंच की है — जहाँ रस्सी-सी राजनीतिक बाजीगरी और खुला अपमान एक साथ देखाई दिया। मंच पर कुछ लोग बैठे थे — रस्सीदा मसूद और शायद इमरान भी — और वहाँ खुलेआम यह कहा जा रहा था कि दलितों को उनकी जगह पर रहना चाहिए; वरना घर जाने का रास्ता भी हमारे खेतों से ही जाएगा। यह बयान जहाँ तक भाषायी तौर पर दुर्भावना है, वहीं यह सुरक्षा और गरिमा की चुनौती भी पेश करता है।
ऐसे में बहनजी — जिन्होंने स्थानीय रैली गाँधी पार्क में की — ने न केवल इसका प्रतिकार किया, बल्कि उनकी प्रतिक्रिया में एक नई राजनीति की झलक थी। बहनजी ने कहा कि जिन लोगों ने मंचों से धमकियाँ दी हैं — उन सबका नाम लिख लो; वह मुख्यमंत्री बनते ही उन पर सीधा कार्यवाही करेंगी और उनकी जिन खेतों से राह गुजरती है, वहां सरकारी रास्ते बना कर सत्ता का प्रयोग करके गरिमा और जो अधिकार हैं, उन्हें मजबूत कर देंगी।
यह उत्तर केवल भाषण का भाग नहीं था — यह सत्ता के उपयोग का आश्वासन था। बहनजी का कहना था कि सत्ता में आकर जो बदलाव संभव हैं, वे सिर्फ घोषणाओं से नहीं, कार्यान्वयन से आते हैं — और कार्यान्वयन का रास्ता कभी-कभी तब खुलता है जब हिम्मत करके उन पर नाम लिखा जाता है जो खुलकर धमकियाँ देते हैं।
बहनजी बनाम मायावती — नामों का महत्त्व और जनभावना-
कई बार नेता नाम और प्रतीक बन जाते हैं। मायावती का नाम दलित राजनीति में एक स्थापित प्रतीक रहा है — पर वहाँ कहा जा रहा है कि “मायावती जी की जगह बहनजी नाम लिया करो”। इसका भावार्थ है — एक नया प्रतीक, नई आवाज जो शम और मनोबल दोनों देते हुए समाज में उस आत्मसम्मान को ज़ाहिर कर सके जो वर्षों से दबा हुआ है।
नाम मात्र नहीं बदलते; नाम के साथ उम्मीद, रणनीति और जनसमर्थन भी बदलता है। बहनजी जैसे प्रतीक तब प्रासंगिक होते हैं जब वे जमीन से जुड़े होते हैं, लोगों की दैनिक पीड़ा समझते हैं और सत्ता के ज़रिए वास्तविक बदलाव कर सकें — न कि सिर्फ भाषणबाज़ी। इसलिए “बहनजी” एक नयी उम्मीद है — और “थोड़ी शर्म” यानी सार्वजनिक शर्म या सामाजिक सरम भी — जो अनावश्यक अपमान और घमंड के सामने एक संतुलन बनाती है।
सत्ता का प्रयोग — रास्ते, नाम और न्याय-
बहनजी का वादा — उन लोगों के खेतों में सरकारी रास्ते निकालने का — केवल जमीनी पहलु नहीं, बल्कि शक्ति का प्रतीक है। इतिहास में देखें तो सड़क, स्कूल, नल, सरकारी दफ्तर — ये छोटे-छोटे ढाँचे बहुत बार समाज में अधिकारों की पुनर्रचना करते हैं। जब कोई रास्ता किसी गाँव से होकर जाता है, तो वहाँ के लोग बेहतर सेवाएँ, आवाज और राजनीतिक पहुँच पाते हैं। जब वही रास्ता जानबूझकर रोका जाता है, तो वहाँ के लोगों की आवाज़ दबती है।
इसलिए बहनजी की नीति — शक्ति का प्रयोग कर के सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे के माध्यम से न्याय दिलाना — यह सामाजिक न्याय का एक व्यवहारिक आयाम है। यह केवल बदला लेने जैसा नहीं होना चाहिए; इसे न्याय सुनिश्चित करने, असमानता घटाने और भविष्य में धमकियों के स्थान घटाने के लिए उपयोग करना चाहिए।
समाज का रोल — केवल नेताओं पर निर्भर नहीं रहना चाहिए-
राजनीति में नेताओं का रोल महत्वपूर्ण है, पर बदलाव केवल नेताओं की नींव पर टिकता नहीं। समाज के हर हिस्से — शिक्षक, नौजवान, मजदूर, किसान, महिलाएँ — सबका योगदान चाहिए। यदि हम चाहें कि मंचों पर अपमान और धमकियाँ खत्म हों, तो हमें स्कूलों में समानता की शिक्षा, स्थानीय न्याय प्रणालियों में पारदर्शिता, और सामुदायिक वार्तालापों से काम लेना होगा।
दलित समुदाय की अस्मिता की रक्षा तभी संभव है जब आम नागरिक भी यह समझें कि किसी की गरिमा पर चोट लगना सम्पूर्ण समाज पर चोट है।
बहनजी सिर्फ़ एक नाम नहीं, एक रणनीति है-
यह लंबा लेख इसलिए लिखा गया क्योंकि घटनाएँ और उनके संदेश अक्सर केवल एक पंक्ति में समेट दिए जाते हैं — पर उनकी जड़ें और असर बहुत गहरे होते हैं। बहनजी का वक्तव्य — मंचों पर खड़े उन लोगों के नाम लिखकर सत्ता को प्रयोग में लाने का — यह एक सीधी चुनौती है उन पारंपरिक प्रथाओं को। पर साथ ही यह याद रखना होगा कि सत्ता का प्रयोग जब सही उद्देश्य के लिए और लोकतांत्रिक तरीके से किया जाए, तभी वह समाज में वास्तविक बदलाब ला सकती है।
दलितों की दशा, उनका आत्मसम्मान, और उनकी भागीदारी — यह केवल किसी एक नेता या एक रैली का विषय नहीं है; यह एक व्यापक सामाजिक परिकल्पना है जिसे हम सब मिलकर आकार देंगे। बहनजी जैसे प्रतीक, स्थानीय नेतृत्व और आम नागरिकों की सक्रिय भागीदारी— यही मिलकर असमानता को चुनौती दे सकती हैं और उन लोगों के लिए रास्ते खोल सकती है जिनका रास्ता कभी बंद कर दिया गया था।
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